लखनऊ । यूपी की राजधानी के गरीब बस्तियों में हाल के दिनों में एक के बाद एक लगी आग ने न केवल सैकड़ों परिवारों की झोपड़ियों को राख कर दिया, बल्कि उनके सपनों, संघर्षों और जिजीविषा पर भी कहर बनकर टूट पड़ी। एक ओर जहां इन हादसों ने इंसानी त्रासदी को जन्म दिया, वहीं दूसरी ओर प्रशासनिक उदासीनता और व्यवस्था की खामियों को भी बेपर्दा कर दिया।बीते एक सप्ताह में मड़ियांव, बाजारखाला और ओशो नगर में हुए अग्निकांडों ने उजागर कर दिया कि शहर के इन कमजोर तबकों के लिए न तो कोई सुरक्षा इंतजाम हैं और न ही हादसों के बाद उन्हें सहारा देने वाली कोई प्रभावी व्यवस्था।
मड़ियांव में झुलसीं उम्मीदें
28 अप्रैल को मड़ियांव इलाके में एक झोपड़ी में खाना बनाते समय आग लगी। देखते ही देखते सिलेंडर फटने से आग ने विकराल रूप ले लिया और पास की 64 झोपड़ियों को अपनी चपेट में ले लिया। धमाकों की आवाजें पूरे इलाके में दहशत फैलाती रहीं। 14 सिलिंडरों के फटने और कई फ्रिज के कंप्रेसर ब्लास्ट होने से मानो पूरा इलाका जंग के मैदान में बदल गया।
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हर महीने 1700 रुपये किराया देकर जैसे-तैसे गुजारा करते थे
तेजीमाला, जो बीते 20 वर्षों से इसी इलाके में झोपड़ी में रह रही थीं, बताती हैं, “हर महीने 1700 रुपये किराया देकर जैसे-तैसे गुजारा करते थे। बिजली भी झुग्गी मालिकों से ही लेनी पड़ती थी। अब सब कुछ राख हो गया। कोई पूछने वाला नहीं।स्थानीय लोगों का आरोप है कि कई बार सभासद और अधिकारियों से यहां की झोपड़ियों को हटवाने और सुरक्षित व्यवस्था कराने की मांग की गई थी, लेकिन ‘कागजों’ में दबकर रह गईं। हादसे के बाद प्रशासन के अफसर जरूर आए, मुआयना भी किया, पर पीड़ितों की आंखों में झांकने की फुर्सत किसी को नहीं मिली।
बाजारखाला में भी लपटों ने लील लिया सब कुछ
25 अप्रैल को बाजारखाला स्थित एलडीए कॉलोनी के पास बनी 40 झोपड़ियों में भीषण आग लग गई। दो सिलिंडर धमाके के साथ फटे और देखते ही देखते परिवारों की पूरी गृहस्थी जलकर खाक हो गई। इस घटना ने न केवल दर्जनों परिवारों को बेघर किया, बल्कि आसपास के करीब एक हजार घरों की बिजली भी घंटों के लिए गुल कर दी।एफएसओ के मुताबिक, आग संभवतः शॉर्ट सर्किट से लगी थी। पर सवाल उठता है कि प्रशासनिक निगरानी होती, तो क्या ये हादसे यूं बेलगाम होते?
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ओशो नगर : राख बन गईं दो सौ झोपड़ियां
22 अप्रैल को ओशो नगर में अवैध रूप से बसाई गई झुग्गी बस्ती में बिजली की कटिया से उठी चिंगारी ने दो सौ से ज्यादा झोपड़ियों को चंद मिनटों में भस्म कर दिया। आग इतनी भयानक थी कि तीन पक्के मकान भी इसकी चपेट में आ गए। 15 दमकल गाड़ियों को आग पर काबू पाने के लिए घंटों मशक्कत करनी पड़ी। लेकिन तब तक जिंदगी का हर सहारा जलकर खत्म हो चुका था।
अब प्रशासनिक व्यवस्था पर सवाल
हर बार हादसा, हर बार निरीक्षण, हर बार वादे… और हर बार झोपड़ियों में रहने वालों के हिस्से आती है सिर्फ राख, आंसू और इंतजार। सवाल यह है कि जब ये बस्तियां वर्षों से प्रशासन की नजर में थीं, तो कोई स्थायी समाधान क्यों नहीं निकाला गया? क्यों हर साल गरीबों को आग के हवाले कर दिया जाता है?झुग्गी बस्तियों में रहने वालों के लिए सरकारों के बड़े-बड़े दावे केवल भाषणों में ही क्यों नजर आते हैं? जमीनी हकीकत में तो ये लोग हर अग्निकांड के बाद खुद ही अपनी राख में से जिंदगी के बचे हुए टुकड़े तलाशते रहते हैं।
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आखिर कब तक झुग्गीवासियों की जिंदगी यू लपटों जलती रहेगी
झोपड़ियों में रहने वाले मेहनतकश परिवारों के पास न पक्की छत है, न स्थायी रोजगार, और न ही किसी योजना का सच्चा सहारा। उनके सपने हर बार किसी शॉर्ट सर्किट, सिलिंडर फटने या प्रशासनिक अनदेखी के धुएं में गुम हो जाते हैं।यह सवाल अब सिर्फ पीड़ितों का नहीं है, बल्कि पूरी व्यवस्था का है — आखिर कब तक इन झुग्गीवासियों की जिंदगी यूं लपटों में जलती रहेगी?। जब प्रशासन इनकी सुध लेगा। क्यों ऐसे ही उनकी जिंदगी तबाह होती रहेगी।