लखनऊ। यूपी की आजमगढ़ सीट पर दो यादवों की भिड़ंत नाक की लड़ाई बन चुकी है। चूंकि इस सीट पर पिछले चुनाव में भाजपा को सफलता मिली थी। जबकि यह सीट सपा की मानी जाती है। इसलिए इस सीट पर सपा दोबारा से काबिज होना चाहती है। वहीं भाजपा भी भगवा परचम फिर से लहराने के लिए सारा जोर लगा दिया है।

इस सीट पर भाजपा से दिनेश यादव निरहुआ और सपा से धमेंद्र यादव चुनाव मैदान में है। दोनों यादव होने के कारण अब इनकी नजर दलित मतदाताओं पर है। चूंकि यहां पर जातीय समीकरण अगर देखा जाए तो यादव के बाद दूसरे नंबर पर दलित आते है। मुस्लिम आबादी भी यहां ठीक ठाक है। इसलिए बसपा ने यहां से मसूद अहमद को चुनाव मैदान में उतारा है।

भाजपा ने इस सीट पर बसपा और सपा के बारी बारी जीतने के क्रम को थोड़ा

जानकारी के लिए बता दें कि देश की हॉट सीटों में शामिल आजमगढ़ में इन दिनों सियासी पारा चरम पर है। सपा हर हाल में इस सीट पर काबिज होना चाहती है, तो भाजपा उपचुनाव में मिली जीत को बरकरार रखने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है। नाक की लड़ाई बन चुकी इस सीट पर दो यादवों की भिड़ंत में सबकी नजर दलित मतदाताओं के रुख पर है। किलेबंदी जारी है। इसीलिए लगातार यहां पर अखिलेश और योगी जनसभा कर रहे हैं।

फ्लैशबैक में जाएं तो 1984 तक पांच बार इस सीट पर परचम फहरा चुकी कांग्रेस मंडल-कमंडल की सियासत शुरू होने के बाद वापसी नहीं कर सकी। 1989 में बसपा ने जीत दर्ज कर यहां के सियासी मिजाज को बदलकर रख दिया। 1991 के चुनाव में जनता दल को मिली जीत को छोड़ दिया जाए तो 1996 से 2004 तक हुए चार चुनावों में बसपा और सपा ही बारी-बारी जीतते रहे। 2009 में भाजपा ने यह क्रम तोड़ा।

पिछले चुनाव में सपा के हाथ से निकल गई थी यह सीट

2014 में मुलायम सिंह यादव ने सीट को फिर से सपा की झोली में डाल दी। पर, सबसे बड़ी लकीर खींची अखिलेश यादव ने। 2019 में 60.4 फीसदी के बड़े वोट शेयर के साथ उन्होंने जीत दर्ज की। हालांकि उनके सीट खाली करने के बाद सपा अपना करिश्मा नहीं दोहरा पाई। दिनेश यादव निरहुआ ने सपा से उतरे धर्मेंद्र यादव को शिकस्त देकर भगवा परचम फहरा दिया। उपचुनाव में गुड्डू जमाली की दावेदारी ने धर्मेंद्र की हार की पटकथा लिख दी थी। अब सपा इस सीट पर दोबारा से काबिज होने के लिए एड़ी से लेकर चोटी तक जोर लगा दी है।

सपा से धर्मेद्र यादव और भाजपा से निरहुआ चुनाव मैदान में

धर्मेंद्र यादव और निरहुआ फिर से मैदान में हैं। सैफई परिवार के लिए यह सीट साख का सवाल है। वहीं, निरहुआ मोदी-योगी के सहारे नजर आ रहे हैं। बसपा ने करीब 20 फीसदी मुस्लिम आबादी को देखते हुए मशहूद अहमद अंसारी को मैदान में उतारकर मुकाबले को रोमांचक बना दिया है।वहीं इस मामले में कुछ युवा मतदाताओं से बात की गई तो उनके सामने सबसे बड़ा मुददा बेरोजगारी का बताया।

वहीं महिला मतदाताओं का कहना है कि बेटियों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में अभी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। रही बात आजमगढ़ की तो यहां अखिलेश और निरहुआ दोनों ने विकास कार्य कराए हैं। इसीलिए दोनों के बीच कांटे की टक्कर बताई जा रही है। बताया जा रहा है कि वहीं गुडूड जमाली के सपा में आने से धमेंद्र यादव की मजबूती बढ़ी है। वहीं कुछ मतदाताओं की राय रही कि राममंदिर बनने का कहीं न कहीं इसका असर आजमगढ़ सीट पर भी दिखाई दे रहा है।

दलित वोटरों पर दोनों प्रत्याशियों की नजर

जानकारी के लिए बता दें कि पिछले दिनों पीएम नरेंद्र मोदी की आजमगढ़ की जनसभा में यादव बिरादरी को साधने की कवायद भी चर्चा में है। दलितों के रुख के बारे में सवाल करने पर लोगों का मानना है कि मुफ्त राशन, किसान सम्मान निधि, पीएम आवास, आयुष्मान योजना भाजपा के दलित वोटों में इजाफा करेंगे।

वहीं, सपा भी मोर्चाबंदी करने में पीछे नहीं है। फिलहाल आजमगढ़ सीट दोनों यादव प्रत्याशियों के लिए नाक की लड़ाई बन गई। इसलिए इन दिनों आजमगढ़ सीट को जीतने के लिए सपा और भाजपा के दोनों प्रत्याशियों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। अब देखना होगा कि जनता जनार्दन किसे अपना सांसद चुनती है यह तो आने वाला समय ही बताएंगा।

समाजसेवियों और बुद्धिजीवियों ने क्या कहा

ब्रजेश नन्दन पाण्डेय ,डॉ दुर्गा प्रसाद द्विवेदी , अभिषेक पंडित ,अरबिंद चित्रांश , प्रोफेसर जहूर आलम और प्रभुनाथ सिंह मयंक कहते हैं कि अबकी बार का चुनाव त्रिकोणीय कम बल्कि आमने सामने का टक्कर है । इस आमने सामने के टक्कर में बसपा त्रिकोणीय बनाने में जुटी है । बसपा प्रत्याशी मुस्लिम वोट को जितना काटेगी ,उतना ही फायदा बीजेपी को होगा ।

दलितों का रुझान सपा की अपेक्षा भाजपा की तरफ है । वैसे चुनाव कभी तक आमने सामने का ही बन रहा है । सपा और भाजपा के छोटे बड़े नेता आजमगढ लोकसभा चुनाव को अपने पक्ष में करने में जुटे हैं । बेरोजगारी ,महंगाई जैसे मुद्दे पर विपक्ष चुनाव लड़ रहा है । वही सत्तापक्ष अपनी कल्याणकारी योजनाएं ,सीए ए ,राममंदिर जैसे मुद्दे को भुनाने में जुटा है । लेकिन यहां जातिगत लड़ाई हावी दिख रही है ।

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